हयग्रीव जयंती बुधवार, 30,अगस्त 2023

हयग्रीव जयंती  बुधवार, 30,अगस्त  2023को भगवान हयग्रीव के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है. शास्त्रों के अनुसार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ही भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हुआ था. भगवान विष्णु के इस अवतार में उनका सिर घोड़े का और बाकी शरीर मनुष्य का था. भगवान विष्णु ने यह अवतार राक्षसों द्वारा चुराये गये वेदों को पुनः प्राप्त करने के लिए किया था. इस दिन भगवान विष्णु के भक्त ज्ञान का आशीर्वाद पाने के लिए उनके हयग्रीव अवतार की विशेष पूजा करते हैं. आइए भगवान हयग्रीव के अवतार की कथा जानते हैं

हयग्रीव जयंती


भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार की कथा
एक समय की बात है. हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ. उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की. वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा. उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं. सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था. उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया. भगवती महामाया ने उससे कहा, ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई. मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं. तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूं. वत्स! वर मांगो.’’

तब राक्षस ने देवी से यह वरदान मांगा
भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए. उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘कल्याणमयी देवि! आपको नमस्कार है. आप महामाया हैं. सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है. आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है. यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें.’’ देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज! संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है. प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता. किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है. अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है. अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो.’’

जब देवी ने किया वरदान देने से इंकार
हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो. दूसरे मुझे न मार सकें. मेरे मन की यही अभिलाषा है. आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें.’’ ‘ऐसा ही हो’. यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं. हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया. वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया. त्रिलोक में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके. उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा. यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगड़ने लगी.

तब भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे देवतागण
ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे. उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी. ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया. ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी. उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया. सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही. सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की. भगवती प्रकट हुई. उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो, मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा. ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें. इससे भगवान का हयग्रीव अवतार होगा. वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे.’’ ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई.

तब भगवान हयग्रीव ने किया राक्षस का वध
भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया. भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया. फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ. अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई. हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया.

भगवान हयग्रीव की आराधना दिलाती है वांछित फल भगवान हयग्रीव अथवा हयशीर्ष भगवान विष्णु जी के ही अवतार हैं... इनका सिर घोड़े का है। पुराणों में भगवान के इस स्वरूप से संबन्धित कथाएँ मिलती हैं। कल्प भेद हरि चरित सुहाए , तुलसीदास जी के अनुसार हर कल्प में भगवान भिन्न भिन्न प्रकार से सुहावनी लीला रचते हैं। सृष्टि के आदिकाल में क्षीरोदधि में अनन्त-शायी प्रभु नारायण की नाभि से पद्म प्रकट हुआ। पद्म-की कर्णिका से सिन्दूरारुण चतुर्मुख लोकस्रष्टा ब्रह्माजी व्यक्त हुए। क्षीरोदधि से दो बिन्दु निकलकर कमल पऱ पहुँच गये। विष्णुजी का चेतनात्मक नाभिपद्म होने से वे दोनों बिन्दु सजीव हो गये । वे ही आदिदैत्य मधु-कैटभ थे ।
उन्होने कमल कर्णिका पर ब्रह्माजी को देखा । वे एकाग्र मनसे भगवान् विष्णु के नि:श्वास से निकली श्रुतियों को ग्रहण कर रहे थे। दैत्यों ने श्रुति का हरण किया और वहाँ से नीचे भाग गये। आदि में ही अनधिकारियों-को श्रुति की प्राप्ति होने से ब्रह्माजी चञ्चल हुए ।उन्होंने भगवान की स्तुति प्रारम्भ की प्रभु प्रसन्न हुए, उन्होंने हयग्रीव या हयशीर्ष रूप धारण किया । दैत्यों को मारकर उन्होंने श्रुति का उद्धार किया। भगवान हयग्रीव का अवतार श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था अतः इस तिथि पर श्री हयग्रीव जयन्ती का महोत्सव मनाना चाहिए।
स्कन्द पुराण के अनुसार - "हयग्रीव-जयन्त्यास्तु अतोsत्रैव महोत्सवः। उपासनाव्रतां तस्य नित्यस्तु परिकीर्तितः॥"
अर्थात् भगवान हयग्रीव की उपासना करने वालों को नित्य ही उत्सव करना चाहिए। भगवान श्री हरि ने श्रावण पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में प्रकट होकर सर्वप्रथम सभी पापों का नाश करने वाले सामवेद का गान किया। भगवान हयग्रीव ने सिंधू तथा वितस्ता नदियों के संगम स्थान में श्रवण नक्षत्र में जन्म लिया था।
अतः श्रावणी के दिन इस जगह पर स्नान करना सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है। भगवान हयग्रीव के प्रीत्यर्थ श्रावण पूर्णिमा अर्थात् श्रावणी के दिन स्नान आदि के पश्चात शार्ङ्ग धनुष, चक्र, गदा धारण करने वाले विष्णु भगवान की विधिवत पूजा करे। इसके बाद सामवेद के मंत्र पाठ करे या श्रवण करे। यदि उपरोक्त तीर्थ पर जाने का सौभाग्य मिले तो वहाँ ब्राह्मणों की पूजा करे और प्रसन्न होकर बंधु बांधव के साथ जल में क्रीड़ा(जल में हाथ चलाकर पानी से खेलना) करे तथा इसके बाद भोजन करे। स्त्रियाँ उत्तम पति प्राप्त करने की कामना से क्रीड़ा करे ऐसा स्कन्द पुराण का कथन है। तीर्थ न जा सके तो भी भगवान हयग्रीव के इस पावन जयन्ती महोत्सव को घर पर मनाना चाहिए और भगवान हयग्रीव नारायण का हयग्रीव मंत्र द्वारा पूजन करना चाहिए।

सर्वप्रथम ध्यान करे- हस्तैर्दधानम् मालां च पुस्तकं वर पंकजम्। कर्पूराभम् सौम्य-रूपम् नाना भूषणभूषितम्॥
पूजन : ॐ हयग्रीव नारायणाय नमः लं पृथिव्यात्मकम् गंधम् समर्पयामि ॐ हयग्रीव नारायणाय नमः हं आकाशात्मकम् पुष्पम् समर्पयामि ॐ हयग्रीव नारायणाय नमः यं वायवात्मकम् धूपम् आघ्रापयामि ॐ हयग्रीव नारायणाय नमः रं वह्न्यात्मकम् दीपम् दर्शयामि ॐ हयग्रीव नारायणाय नमः वं अमृतात्मकम् नैवेद्यम् निवेदयामि ॐ हयग्रीव नारायणाय नमः सौं सर्वात्मकम् सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य समर्पयामि पूजन के पश्चात यथाशक्ति

हयग्रीव मंत्र का जप भी करे। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान हयग्रीव का मंत्र इस प्रकार है: "॥
ॐ नमो भगवते आत्मविशोधनाय नमः॥" यहा मंत्र सर्व सिद्धि प्रदायक है। सिद्धि हेतु इसका पुरश्चरण अठारह लाख या अठारह हजार जप का है, कलियुग , में तों इससे भी चौगुना जपना चाहिए।
अन्य मंत्र: ॥वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥ ॥ऐं ह्सूं हय शिरसे नमः ऐं॥ ॥क्लीं ह्सूं हय शिरसे नमः क्लीं॥ इस प्रकार पूजन करने व मंत्र जपने पर भगवान हयग्रीव प्रसन्न होकर मनो वांछित फल प्रदान करते हैं। भगवान हयग्रीव हम सबका मंगल करें।
ऋषि बोले — हे सूत जी ! आप के यह आश्चर्यजनक वचन सुन कर हम सब के मन में अत्याधिक संदेह हो रहा हे. सब के स्वामी श्री जनार्धन माधव का सिर उनके शरीर से अलग हो गया !! और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाये गये – अश्व मुख वाले . आह ! इस से अधिक और आश्चर्यजनक क्या हो सकता हे. जिनकी वेद भी प्रशंसा करते हैं, देवता भी जिसपर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं, आदिदेव जगन्नाथ, आह ! यह कैसे हुआ कि उनका भी सिर कट गया ! हे परम बुद्धिमान ! इस वृत्तांत का विस्टा से वर्णन कीजिये.
सूत जी बोले — हे मुनियों, देवों के देव, परम शक्तिशाली, विष्णु के महान कृत्य को ध्यान से सुनें. एक समय की बात है। हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ। उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा। उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं। सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया। भगवती महामाया ने उससे कहा, ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई।
मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूं। वत्स! वर मांगो।’’ भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी को सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘हे कल्याणमयी देवि! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें।’’ देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज! संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता। किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो।’’ हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें।’’ ‘ऐसा ही होगा’। यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं। हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा। यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी। ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर टंकार हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही। सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुई। उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो। मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें। इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे।’’ ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई। भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया। फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ। अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया।



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