खाटू श्याम बर्बरीक के रूप हैं। श्रीकृष्ण ने ही बर्बरीक को खाटूश्यामजी नाम दिया था। भगवान श्रीकृष्ण के कलयुगी अवतार खाटू श्यामजी खाटू में विराजित हैं। वीर घटोत्कच और मौरवी को एक पुत्ररतन की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया।
बर्बरीक को आज हम खाटू के श्याम, कलयुग के अवतार, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश व अन्य अनगिनत नामों से जानते व मानते हैं।
कृष्ण वीर बर्बरीक के महान् बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है। खाटूनगर तुम्हारा धाम बनेगा और उनका शीश खाटूनगर में दफ़नाया गया।
ब्राह्मण ने बालक बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा।
कृष्ण ने उनसे शीश का दान माँगा।
बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जताई।
बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तविक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है।
श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली।
फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। भगवान ने उस शीश को अमृत से सींच कर सबसे ऊँचे स्थान पर रख दिया, ताकि वह महाभारत युद्ध देख सके। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
खाटू की स्थापना राजा खट्टवांग ने की थी। खट्टवां ने ही बभ्रुवाहन के बर्बरीकद्ध के देवरे में बर्बरीक के सिर की प्राण प्रतिष्ठा करवाई थी।
खाटू की स्थापना के विषय में अन्य मत प्रचलित हैं -
कई विद्वान् इसे महाभारत के पहले का मानते हैं तो कई इसे ईसा पूर्व के समय का मानते है लेकिन कुल मिलाकर विद्वानों की एकमत राय यह है कि बभु्रवाहन के देवरे में सिर की प्रतिमा की स्थापना महाभारत के पश्चात् हुई।
उनका शीश खाटू में दफ़नाया गया था और बाद में वहाँ सफ़ेद संगमरमर का खाटू श्यामजी मंदिर बनावाया गया था।
एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी, बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिये एक ब्राह्मण के सुपुर्द कर दिया गया।
एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया।
तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। खाटू श्याम जी का मुख्य मंदिर राजस्थान के सीकर ज़िले के गाँव खाटू में बना हुआ है।
श्री खाटू श्याम मंदिर जयपुर से उत्तर दिशा में वाया रींगस होकर 80 किलोमीटर दूर पड़ता है। रींगस पश्चिमी रेलवे का जंक्शन है। दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर आदि से आने वाले यात्रियों को पहला पड़ाव रींगस ही होता है। रींगस से सभी भक्तजन खाटू-श्याम-धाम पैदल अथवा जीपों, बसों आदि द्वारा प्रस्थान करते हैं।
श्याम मंदिर बहुत ही प्राचीन है। श्याम मंदिर की आधारशिला सन् 1720 में रखी गई थी। इतिहासकार पंडित झाबरमल्ल शर्मा के मुताबिक सन् 1679 में औरंगजेब की सेना ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया था। इस मंदिर की रक्षा के लिए उस समय अनेक राजपूतों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया था। खाटू के श्याम मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की पूजा श्याम के रूप में की जाती है।
ऐसा माना जाता है कि महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को वरदान दिया था कि कलयुग में उसकी पूजा श्याम (कृष्ण स्वरूप) के नाम से होगी। खाटू के श्याम मंदिर में श्याम के मस्तक स्वरूप की पूजा होती है, जबकि पास ही में स्थित रींगस में धड़ स्वरूप की पूजा की जाती है।
खाटू श्यामजी मंदिर में प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष में बड़े मेले का आयोजन होता है। प्रत्येक वर्ष इस मेले में काफ़ी संख्या में देश-विदेश से श्रद्धालु आते हैं। यह मेला फागुन सुदी दशमी के आरंभ और द्वादशी के अंत में लगता है।
हज़ारों श्रद्धालु यहाँ पदयात्रा करके पहुँचते हैं, वहीं कई लोग दंडवत करते हुए खाटू नरेश के दरबार में हाज़िरी देते हैं।
यहाँ के एक दुकानदार रामचंद्र चेजारा के अनुसार नवमी से द्वादशी तक भरने वाले मेले में लाखों श्रद्धालु आते हैं।
प्रत्येक एकादशी और रविवार को भी यहाँ भक्तों की लंबी कतारें लगी होती हैं। जीवन के समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं और प्रभु के दर्शन मात्र से उसके जीवन में खुशियाँ और सुख शान्ति का भंडार भरना प्रारम्भ हो जाता है।
ये महान् पाण्डव भीम के पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान् योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेद्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था।
बालक वीर बर्बरीक के जन्म के पश्चात् घटोत्कच इन्हें भगवन श्री कृष्ण के पास लेकर गए थे और भगवान श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक को बताया कि जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार और निर्बल का साथ देना होता है।
वीर बर्बरीक ने वापस आकर विजय नामक ब्राह्मण का शिष्य बनकर अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान प्राप्त किया और उनके यज्ञ को राक्षसों से बचाकर, उनका यज्ञ संपूर्ण कराया। विजय नाम के उस ब्राह्मण का यज्ञ संपूर्ण करवाने पर माँ भगवती व भगवन शिव शंकर बर्बरीक से बहुत प्रसन्न हुए और उनके सामने प्रकट होकर तीन बाण प्रदान किए जिससे तीनो लोकों में विजय प्राप्त की जा सकती थी।
महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता के सामने युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की और तब इनकी माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा दे दी और यह वचन लिया कि तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे।
जब बर्बरीक युद्ध में भाग लेने पहुँचे तब भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक से शीश दान में माँग लिया और उन्हें यह समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में माँगा।
श्री कृष्ण ने ऐसा इसलिए किया क्योकि अगर बर्बरीक युद्ध में भाग लेते तो कौरवों की समाप्ति केवल 18 दिनों में महाभारत युद्ध में नहीं हो सकती थी और युद्ध निरंतर चलता रहता।
वीर बर्बरीक ने भगवान श्री कृष्ण के कहने पर जन-कल्याण, परोपकार और धर्म की रक्षा के लिए अपने शीश का दान प्रसन्न हो कर दे दिया और कलयुग में भगवान श्री कृष्ण के अति प्रिय नाम श्री श्याम नाम से पू्जे जाने का वरदान प्राप्त किया। बर्बरीक की युद्ध देखने की इच्छा भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक के शीश को ऊँचे पर्वत पर रखकर पूरी की थी।
युद्ध समाप्त हो जाने के बाद सभी पांडवो के पूछने पर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की नीति के कारण जीता गया है और इस युद्ध में केवल भगवान श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था और द्रौपदी चंडी का रूप धारण कर पापियों का लहू पी रही थी। भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक के शीश को अमृत से सींचा और कलयुग का अवतारी बनने का आशीर्वाद प्रदान किया।
आज यह सच हम अपनी आँखों से देख रहे हैं कि उस युग के बर्बरीक आज के युग के श्याम हैं और कलयुग के समस्त प्राणी श्याम जी के दर्शन मात्र से सुखी हो जाते हैं उनके जीवन में खुशियों और सम्पदाओं की बहार आने लगती है और खाटू श्याम जी को निरंतर भजने से प्राणी सब प्रकार के सुख पाता है और अंत में मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
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