वर्ष 2022 में लगने वाला सूर्य और चंद्र ग्रहण :-पंडित कौशल पाण्डेय
वर्ष 2022 में कुल 4 ग्रहण पड़ेगे 2 सूर्य ग्रहण और 2 चंद्र ग्रहण
वर्ष 2022 का पहला सूर्य ग्रहण 30 अप्रैल 2022 को लगेगा
यह आंशिक सूर्य ग्रहण होगा, जो कि दोपहर 12 बजकर 15 मिनट से शाम 04 बजकर 07 मिनट तक रहेगा। यह ग्रहण दक्षिण/पश्चिम अमेरिका, प्रशांत अटलांटिक और अंटार्कटिका में दिखाई देगा।
यह ग्रहण भारत में मान्य नहीं होगा और न ही सूतक का विचार किया जायेगा ।
साल 2022 का दूसरा सूर्य ग्रहण 25 अक्टूबर को लगेगा।
यह भी आंशिक ग्रहण होगा, जो कि शाम 04 बजकर 29 मिनट से शुरू होगा और 05 बजकर 42 मिनट तक चलेगा।
यह ग्रहण यूरोप, दक्षिण/पश्चिम एशिया, अफ्रीका और अटलांटिका में देखा जा सकेगा। 25 अक्टूबर को लगने वाले आंशिक सूर्यग्रहण का नजारा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों को छोड़कर शेष भारत में निहारा जा सकेगा।
चंद्र ग्रहण 2022
साल 2022 का पहला चंद्र ग्रहण 16 मई 2022 को सुबह 7 बजकर 02 बजे से शुरू होकर दोपहर 12 बजकर 20 बजे तक चलेगा।
यह ग्रहण साउथ-वेस्ट यूरोप, साउथ-वेस्ट एशिया, अफ्रीका, नॉर्थ अमेरिका के ज्यादातर हिस्सों, साउथ अमेरिका, प्रशांत महासागर, हिंद महासागर अंटार्कटिका और अटलांटिक महासागर में देखा जा सकेगा।
साल 2022 का दूसरा चंद्र ग्रहण 8 नवंबर को दोपहर 1 बजकर 32 बजे से शाम 7 बजकर 27 बजे तक रहेगा।
इस ग्रहण को नॉर्थ-ईस्ट यूरोप, एशिया, ऑस्ट्रेलिया, नॉर्थ अमेरिका, साउथ अमेरिका में देखा जा सकेगा। सूतक काल मान्य साल 2022 में लगने वाले दोनों चंद्र ग्रहण का सूतक काल मान्य होगा।
पंडित कौशल पाण्डेय के अनुसार ग्रहण कहीं भी लगे, दिखाई दे या न दे, लेकिन उसका प्रभाव मानव जीवन पर अवश्य पड़ता है। ऐसे में ग्रहण के दौरान किसी भी तरह के शुभ कार्य को करने से बचें व् धर्म कर्म पर अधिक ध्यान दे।
पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चन्द्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की सन्तान हैं। चन्द्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चन्द्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है.
जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चन्द्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें।
ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए।
भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है।
पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।
सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये।
बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए।
बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये
ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना - ये सब कार्य वर्जित हैं।
ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए।
ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता।
ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमन्दों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। '
देवी भागवत' में आता है कि भूकम्प एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।
ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।
पौराणिक कथा
सूर्य ग्रहण का राहु और केतु से गहरा संबंध है. पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान विष्णु ने देवताओं को क्षीर सागर के मंथन के लिए कहा तो राक्षस भी आ गए. मंथन से निकले अमृत का पान करने के लिए कहा गया. इस दौरान विष्णुजी ने देवताओं को सतर्क किया था कि गलती से भी अमृत असुर न पीने पाएं. यह सुनकर एक असुर देवताओं के बीच भेष बदल कर बैठ गया. अमृत पान के दौरान चंद्र और सूर्य इस असुर को पहचान गए और भगवान शिव को सूचित कर दिया. असुर अमृत पी चुका था और अमृत गले तक ही पहुंचा था, इसी दौरान विष्णुजी ने सुदर्शन चक्र से असुर का सिर अलग कर दिया. अमृत गले से नीच नहीं उतरा तो उसका सिर अमर हो गया. इस तरह सिर राहु बना और धड़ केतु के रूप में अमर हो गया. समय के साथ राहु और केतु को चंद्रमा और पृथ्वी की छाया के नीचे स्थान मिला. मान्यता है कि तभी से राहु, सूर्य और चंद्र से द्वेष रखते हैं, इसके चलते ही सूर्य ग्रहण लगता है.
ज्योतिष,वास्तु शास्त्र व राशि रत्न विशेषज्ञ
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