सुख,समृद्धि,धन-वैभव के साथ पराक्रम देता है दीपावली पंचमहापर्व
भारत देश विविध प्रकार के पर्व और सनातन संस्कृति को अपने में समेटे हुए है , भारत भूमि मानव जीवन को संवारने की अद्वितीय परम्पराओं से युक्त हैं। जहाँ ऋतुओं के अनुसार प्रसिद्ध तिथि, त्यौहारों का आगमन होता रहता है, ऐसे ही उत्कृष्ट व अति पवित्र कार्तिक मास जिसे पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है उसमें पंच महापर्व जिसमें धनत्रयोदशी, नरक चतुदर्शी, दीपावली, गोवर्धन पूजा , भैय्यादूज के त्यौहार शामिल हैं। जिसे हम पंच महापर्व के नाम से भी जानते हैं। हमारे जीवन में इन पंच महापर्वों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान हैं। जैसे पंच तत्व, पंच तिथियाँ – नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा आदि का उसी प्रकार इन पंच महापर्वों का अतिविशिष्ठ स्थान है जिसका प्रधान त्यौहार दीपावली है।
इन पंच महापर्वों का क्या महत्व एवं अस्तित्व है। इनके पूजन का विधान तथा यह इस वर्ष कब किस दिन मनाएं जाएंगे? ऐसे सभी महत्वपूर्ण संदर्भों में सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत है।
इन पंच महापर्वों में सबसे पहले धन त्रयोदशी आती है। जो धनार्जन की शक्ति में वृद्धि प्रदान करती है।
धनतेरस:-
मंद गति से बढ़ती हुई शीत ऋतु ज्यों-ज्यों अपने पांव धरा में पसारती हैं त्यों-त्यों जन मानस में ठंड़ी का अहसास होने लगता हैं। नाना विधि पेड़-पौधों से हरित धरा को सुखद बनाने हेतु कार्तिक मास के सुप्रसिद्ध त्यौहार दीपावली का आगमन होता है। इसके दो दिन पूर्व धनत्रयोदशी का महत्वपूर्ण त्यौहार आता है। दीपावली के त्यौहार को माँ लक्ष्मी जी के पूजन के रूप में मनाया जाता है। अतः माँ लक्ष्मी के आगमन से पूर्व तन, मन को निरोग बनाने हेतु धन त्रयोदशी का त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन समुद्र मंथन के समय भगवान् धन्वंतरि देव और दैत्य समूहों के सामने प्रकट हुए थे। भगवान धन्वंतरि ने लोक कल्याण हेतु आर्युवेद के अमूल्य सिद्धांतों व दवाओं का उपयोग जनहितार्थ किया था, उन्हें देवताओं का वैद्य (डाक्टर) कहा जाता है। भगवान धनवंतरि आज के ही दिन अमृत देकर देवताओं को अमरता व निरोगता प्रदान की थी। जिससे कारण यह तिथि अत्यंत प्रसिद्ध हुई और प्रति वर्ष लोग इसे धनवंतरि जयंती के रूप में मनाते हैं। भगवान धनवंतरि की पूजा अर्चना से चिकित्सा जगत में कार्यरत लोगों को ख्याति अर्जित होती है। यह सिर्फ वैद्यों के लिए ही नहीं अपितु आरोग्य प्रिय सभी व्यक्ति इनकी पूंजा अर्चना करते हैं। भगवती माँ लक्ष्मी के स्वागतार्थ प्रत्येक व्यक्ति घर, आँगन का कोना-कोना स्वच्छ करता दिखाई देता है। चारो ओर स्वच्छ और सुन्दर वातावरण के अतरिक्त गृहस्थ जीवन को विविध सुविधाओं से युक्त रखने तथा सुख-शांति आरोग्यता हेतु आज ही के दिन नवीन बर्तनों को खरीदा जाता है।
धनत्रयोदशी के दिन धर्मराज जिन्हें यमराज या मृत्यु के देवता के रूप से जाना जाता है के पूजन का विधान है। जिससे वे प्रसन्न होते हैं तथा जीव की अकाल मृत्यु से रक्षा करते हैं। अतः इस दिन इनकी पूजा अर्चजना का विधान है। कुछ लोक रीति भी अलग-अलग स्थानों में प्रचलित है जैसे आज धन त्रयोदषी के दिन अपने मुख्य द्वार पर दक्षिणा मुख मिट्टी से निर्मित दीप को प्रज्जवलित करके सायंकाल में रखा जाता है। तथा रात्रि काल में शुद्धता का ध्यान रखते हुए चार बत्तियों से युक्त दीप जलाकर दीपदान व यमराज के पूजन का विधान प्रचलित है। अर्थात् धन त्रयोदशी के दिन धन व आयु आरोग्यता की कामना हेतु आज इस त्यौहार को भली-भांति श्रद्धा पूर्वक मनाना चाहिए।
प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष धन त्रयोदशी (धन-तेरस)का त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष को धनतेरस या धन्वन्तरी जयंती मनाई जायेगी। अतः इस दिन अन्न, औषधियों (दवाइयां) एवं दीपदान करना चाहिए। जिससे अकाल मृत्यु का डर नही होता है। इस दिन सोने-चाँदी के वर्तनों की खरीद करना चाहिए, जो शुभप्रद माना गया है। निश्चित ही पंचपर्व मे यह प्रथम पर्व अत्यंत उपयोगी है |
रूप चतुर्दशी :-
पंचमहापर्व का दूसरा महत्वपूर्ण पर्व नरक चतुर्दशी है जो प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। पौराणिक ग्रंथों में ऐसी कथा प्रचलित है कि इस दिन रूप लावण्य को निखारने की प्रथा है। अर्थात् यूँ कह सकते है, कि सर्द हवाओं और ठण्ढ़ के चलते शारीरिक त्वचा में रूखापन आ जाता है और ऐसे व्यक्ति जिनको रक्त विकार होते है। उनकी त्वचा में खिंचाव होने के कारण हाथ व पैरों में फटना शुरू हो जाती है। अतः इस त्वाचीय वेदना से बचने हेतु पहले से ही जनमानस को प्रति वर्ष कार्तिक मास की कृष्ण चतुर्दशी को सतर्क किया जाता है और तेल युक्त पदार्थों को लेप के रूप में लगाकर या तेलीय पदार्थों का प्रयोग आज से नित्य प्रति किया जाता है। जिससे चेहरे की सुन्दरता खराब न हो। जिसके कारण इसे नरक चतुर्दशी या सौंदर्य (रूप) चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। धन त्रयोदशी के बाद यह पंचमहापर्वों का दूसरा क्रम है।
आज के दिन इस तिथि में गंगा, यमुना, कावेरी, नर्वदा आदि पवित्र तीर्थों में लोग प्रातःकाल स्नान कर सम्पूर्ण त्वचा में तिलादि के तेलों को अपनी त्वचा में लगाते है। जिससे त्वचा की सुंदरता व कोमलता सदैव बनी रहें। क्योंकि आगामी समय में शीत की तीव्रता से त्वचा में शुष्कता अधिक हो जाती है। अस्तु इन त्वचा विकारों और रोगों से बचने हेतु तीर्थ व तेलों का सेवन किया जाता है।
पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख है कि प्रभु श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर का वध किया था। जिससे धरा के प्राणियों को अत्यंत प्रसन्नता हुई और इसे इसी खुशी के कारण प्रति वर्ष मनाया जाने लगा। नरक या रूपचतुर्दशी का त्यौहार प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी रविवार 12 नवम्बर 2023 को होगी। इस तिथि को चंद्रोदय या सूर्योदय के समय जब चतुर्दशी तिथि व्याप्त हो तभी मनाने का विधान हैं। आज के दिन पितृ, देव, यम का तर्पण तथा प्रभु श्रीकृष्ण का अर्चन भी वैदिक रीति से किया जाता है, जो सभी मनोवांछित फल का दाता है।
दीपावली:-
पंच महापर्वों का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण त्यौहार दीपावली ही है। जो कार्तिक मास कृष्ण पक्ष अमावस्या को प्रेम श्रद्धा विश्वास के साथ मनाया जाता है। इसे पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है। भगवान विष्णु का इस मास से संबंध होने के कारण श्री हरि प्रिया महालक्ष्मी जी इसी मास में प्रकट होती है। इस मास की दिव्यता प्रकाशकता इतनी बलवती है कि निथीशकाल में प्रत्येक घर आँगन के कोने-कोने से अंधकार को नष्ट कर उसे दिव्य प्रकाशक ऊर्जावान बना देता है। अमावस के घने अंधकार से आच्छादित धरा को, छोटे-छोटे दीपमालाओं द्वारा इस प्रकार प्रकाशित किया जाता है, जिससे माँ लक्ष्मी प्रकाशित स्थान की दिव्यता को बढ़ा देती हैं तथा स्थान से संबंध रखने वाले व्यक्ति के जीवन से अंधरे को मिटाती हैं।
इस महान ज्योर्तिमय पर्व की व्यापकता से भारत ही नहीं बल्कि समूचा जगत प्रभावित है। जिससे विश्व के अनेक देशों में दीपदान की प्रथा का निरन्तर विस्तार हो रहा है। चाहे अमावस्या की रात्रि का घना अंधेरा हो अथवा अल्पज्ञता व मलिन विचारों का दूषण हो, बिना दिव्य प्रकाश व अनुपम ज्ञान के उनसे छुटकारा नहीं मिल सकता है।
क्यों मनाया जाता है दीपोत्सव का पर्व
पौराणिक ग्रंथों में वर्णन हैं कि आज ही के दिन मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्रीराम ने पापी रावण पर विजय श्री प्राप्त करके दीपावली के ही दिन अपने पैतृक गाँव अयोध्या वापस आए थे । इस लंबे अन्तराल के बाद श्रीराम प्रभु का पुनः जन्मभूमि में सकुशल आना अयोध्या वासियों के लिए विशाल उत्सव के समान था, जिससे उत्साहित ग्राम वासियों ने घी के दिए जलाकर सम्पूर्ण अयोध्या को चहूँ ओर दीपों से जगमगा दिया तथा नाना विधि के मिष्ठान व भोजन को प्रभु के समक्ष परोसा और सभी ने मिलकर खाया और खुशियां मनाई।
एक अन्य कथानक के अनुसार आज ही के दिन श्री हरि विष्णु ने वामन रूप धारण करके दैत्यराज बलि के आधिपत्य को समाप्त कर सम्पत्ति (लक्ष्मी) को मुक्ति कराया था, जिससे देव समूहों को अति प्रसन्नता हुई और उनको पुनः उनका साम्राज्य प्राप्त हुआ था। जिससे दीपावली के पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। वस्तुतः यह साधारण दीपमात्र प्रज्जवलित करने का पर्व नहीं, बल्कि धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन मनुष्य ही नहीं बल्कि देवताओं को यश, साम्राज्य सम्पत्ति आदि सहित महालक्ष्मी की महान कृपा भी प्राप्त हुई। जिसके कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। इस महान दीपपर्व का अर्थ यही-असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।। अर्थात् यह दीप पर्व हमारे जीवन को असत्य से सत्य की ओर और अंधकार से प्रकाश की ओर सदैव बढ़ाता रहे। यह अत्यंत शुभ, मंगलकारी, कल्याणकारी तथा जीवन का संकेत प्रस्तुत करने वाला ज्योर्तिमय पर्व है। जो महानतम रहस्यों से पूर्ण है। जिससे इसे महारात्रि, तमोरात्रि, प्रकाश पर्व, घोर निशा आदि की संज्ञा प्राप्त है। इस अमावस्या की घनघोर काली रात्रि में प्रकाश की एक किरण जीवन को प्रगति दे उसमें जोश का संचार कर देती है।
दीपावली: यह छोटी-छोटी दीप श्रृंखला एक सर्व साधारण व्यक्ति के जीवन मे प्रकाश फैलाकर उसे विशेष बना देती हैं और जो विशेष हैं उन्हें अति विशिष्ट बना परम पद दिलाने का सामर्थ रखती हैं। जिससे इस रात्रि में योगी परम योग की तरफ, विज्ञान तथा तंत्र विद्याओं से संबंध रखने वाले सधे हुए प्रयोगों को करते है और उनकी क्षमताओं की पुष्टि करते हैं। इसी तरह वैदिक पंडि़त वैदिक कर्मों को व विद्वजन, कारोबार करने वाले, पूंजीपति, उद्योगपति, उत्पादक, सैनिक, ज्योतिषी, वैद्य व विद्यार्थी अपने संबंधि क्षेत्रों को पुष्ट करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं, कि दीप की तरह उनका जीवन प्रकाशित व संबंधित विधाओं में सबल रहे तथा महालक्ष्मी की कृपा सदैव उन्हें प्राप्त होती रहे। दीपावली के दिन श्री महालक्ष्मी, कुबेर, लेखनी, बही खाता, महाकाली, महासरास्वती, त्रिदेवियों की पूजा की जाती है, जो हमें धन, यश, शारीरिक व आत्मबल और बुद्धि प्रदान करती है। बिना धन, बल, बुद्धि के इस संसार में कुछ सम्भव नहीं है। अतः महालक्ष्मी की पूजा अर्चना तो अतिआवश्यक है उसके साथ ही त्रिदेवियों की भी पूजा करने का विधान है।
दीपावली का महत्व एवं पूजन
सफाई व पवित्रता के नियमः इन पंच महापर्वो धनत्रयोदशी, नरक चतुदर्शी, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज को मनाने के सर्वसाधारण नियम हैं जिसमें घर व स्थानों की सफाई शरीर की व मन की पवित्रता, स्नान, उपहारों का दान, अन्नदान, धन व द्रव्य का दान, तीर्थ जलों में स्नान, देवालयों में व निवास स्थलों में दीपदान आदि के नियम हैं। जो इस प्रकार हैं:-
सफाईः इन पंच महापर्वों को मनाने हेतु सबसे पहला नियम हैं प्रत्येक स्थान की सफाई घर व बाहर के कोने-कोने स्वच्छ रखना। अर्थात् अपने व आस-पास के सभी संबंधित स्थानों को चाहे वह आपका निवास स्थान हो, मंदिर हो, कार्यालय हो, जलाशय हो, सामूहिक स्थान हो, रास्ते हों सभी को पूर्णतयः स्वच्छ रखना चाहिए।
तीर्थों में स्नानः– आज के दिन गंगा, यमुना आदि तीर्थों के जलों से स्नान करने का विधान है, जो किसी कारण वश तीर्थ नहीं जा सकते हैं वह अपने घर में ही तीर्थों के जलों को व कुशाग्र को जल में मिलाकर स्नान कर सकते हैं।
दीपदान का विधानः– अमावस का पर्व होने के कारण आज तीर्थों में पितरों के निमित्त तर्पण, श्राद्ध, अन्न दान, धन दान, वस्त्राभूषणों तथा गर्म कपड़ों आदि का दान तथा दीपावली का प्रधान पर्व होने के कारण सबसे पहले गणपित आदि देवताओं के निमित्त, ईष्ट देवता, कुल देवी-देवता के निमत्त तथा किसी सुप्रसिद्ध तीर्थ व नजदीकी देवालय में शुद्ध देशी घी से अवश्य दीपदान करना चाहिए। तदोपरान्त सायंकाल सर्व प्रथम अपने घर के पूजा स्थान में फिर सम्पूर्ण भवन सहित कार्यालय, व्यावसायिक स्थलों, अन्य दूसरे मकान व दुकानों में दीपदान (दीप प्रज्जवलित) करना चाहिए।
उपहारों का आदान-प्रदानः आज के दिन उपहारों का आदान-प्रदान अपने धन ऐश्वर्य के अनुसार अपने से पूज्य, देव, गुरू, ब्राह्मण, श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ कनिष्ठ, धन से कमजोर, तथा सहायकों, आश्रितों सहित ईष्ट मित्रों, समकक्षों आदि को यथोचित उपहार, धन, द्रव्य देने चाहिए। इससे दानदाता की कीर्ति, ख्याति में वृद्धि होती है और श्री महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। क्योंकि यह एक प्रसिद्ध त्यौहार है इसमें इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति हेतु हमे तद्सम्बंधी वस्तुओं का दान करना चाहिए यही भारतीय संस्कृति का मूल है, कि खुशियाँ बाँटने से ही खुशियाँ, संतोष से संतोष, धन से धन अर्थात् संबंधित बीच से ही उस फल की प्राप्ति होती है। यदि आप संकीर्णता वश उसे संकुचित कर देंगे तो उसका क्षेत्र और शक्ति कम होती चली जाएगी। जिससे जीवन पथ पर आप सर्वथा उन-उन खुशियों से वंचित की तरह भटक सकते हैं। अतः श्रेष्ठ व पूज्य व्यक्तियों को अपनी सेवा भेंट कर उनका आशिर्वाद अवश्य लें।
श्री महालक्ष्मी पूजन विधानः– शास्त्रों में श्री महालक्ष्मी जी के पूजन का अति महत्वपूर्ण स्थान है। अतः शुभ मुहुर्त में श्रीमहालक्ष्मी की पूजा अर्चना करनी चाहिए। श्री महालक्ष्मी की पूजा प्रदोष काल में शुभ मानी गई हैं यदि अमावस प्रदोष काल में नहीं हो, तो उससे पहले भी पूजा करने का विधान है।
श्री लक्ष्मी पूजन से संबंधित सभी पूजन पदार्थों को लेकर पवित्र आसन में बैठकर किसी ब्राह्मण जो कि (पूजापाठादि के नियमों से भली प्रकार परिचित हो) की सहायता से श्री महालक्ष्मी सहित देव व देवी पूजन करना चाहिए। षोड़शोपचार विधि से पूजा का अति महत्वपूर्ण स्थान हैं, श्री सूक्त पाठ, पुरुष सूक्त एवं लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने, करवाने से माँ की महती कृपा प्राप्त होती है। अतः षोड़शोपचार विधि से पूजा करते हुए ब्राह्मणों दक्षिणा देकर प्रणाम करना चाहिए। दीपावली की रात्रि में अपने आवासीय व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के अन्दर पूरी रात्रि अखण्ड दीप जलाना शुभप्रद होता है। दीपावली पूजन को प्रदोषकाल से लेकर अर्द्धरात्रि किया जा सकता है। किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि यदि अमावस प्रदोषकाल को स्पर्श न करें तो ऐसी स्थिति में दूसरे दिन पूजन करना फलप्रद होता है। किसी विशेष कार्य हेतु विशेष मुहुर्त का ध्यान देना सर्वथा लाभप्रद होता है।
दीपावली पूजन का मुहुर्त
कार्तिक मास कृष्ण पक्ष अमावस्या तिथि को सम्पूर्ण भारत सहित विश्व के अनेक देशों में भी मनाया जाएगा। गुरुवार के दिन दीपावली स्वाती नक्षत्र तथा प्रीति योग कालीन प्रदोष तथा निशीथकाल एवं अल्पसमय के लिए महानिशीथ व्यापिनी अमावस्या युक्त होने से विशेषतः प्रशस्त एवं पुण्यफलप्रदायक होगी।
शुक्रवार 1 नवम्बर 2024
लक्ष्मी पूजा शुक्रवार, नवम्बर 1, 2024 पर
लक्ष्मी पूजा मुहूर्त - 05:36 pm से 06:16 pm
अवधि - 00 घण्टे 41 मिनट्स
प्रदोष काल - 05:36pm से 08:11 pm
वृषभ काल - 06:19 pm से 08:15 pm
लक्ष्मी पूजा मुहूर्त स्थिर लग्न के बिना
अमावस्या तिथि प्रारम्भ - अक्टूबर 31, 2024 को 03:52 pm
अमावस्या तिथि समाप्त - नवम्बर 01, 2024 को 06:16 pm
माँ श्री महालक्ष्मी की कृपा हेतु आज के दिन साधकों, व्यापारियों, विद्यार्थी तथा गृहस्थ का पालन करने वाले व्यक्ति को श्रीसूक्त, श्रीलक्ष्मीसूक्त, पुरूषसूक्त, राम रक्षास्त्रोत, हनुमानाष्टक, गोपालशस्त्रनाम आदि अनुष्ठान, जप करवाना चाहिए। जिससे उसे माँ लक्ष्मी की कृपा से वांछित फलों की प्राप्त होती है। ध्यान रहें कि जप अनुष्ठान प्रसन्नता, पवित्रता व श्रद्धा के साथ करना चाहिए। जप व अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों को श्रेष्ठ द्रव्य, धन, वस्त्राभूषण आदि की दक्षिणा श्रद्धा पूर्वक देनी चाहिए। इस पूजन अर्चन व दान के समय भूल कर भी आलस्य, गुस्सा, प्रमाद, लोभ, अहंकार और कंजूसी न करें, जिससे फलप्राप्ति में रूकावटें न हों।
अन्नकूट गोवर्धन पूजन
पंचपर्व का यह चतुर्थ क्रम है जिसे अन्नकूट गोवर्धन कहा जाता है। भारत देश के पूर्वकाल में शैक्षिक व आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने का साक्ष्य वेद ग्रंथों मे स्थान-स्थान पर मिलता रहता है। इसी का एक उदाहारण है गोवर्धन व अन्नकूट पूजा पर्व जो कि दीपावली के ठीक दूसरे दिन आता हैं। हमारे यहाँ कहीं भी स्वार्थ में अंधे होकर प्रकृति से खिलवाड़ को समर्थन नहीं दिया गया बल्कि उसका सहर्ष संरक्षण सदैव से किया जाता रहा है। जिससे यहां प्राकृतिक पूजा व उपासना को महत्त्व पूर्ण स्थान प्राप्त है। जिसे स्वतः प्रभु श्रीकृष्ण ने समर्थित किया तथा पृथ्वी पर बसने वाले मानव को यह समझाया कि पेड़, पौधें, नदियां, पर्वत तथा जल स्रोत व नाना विधि जीव जगत सब कुछ मुझसे उत्पन्न हैं। अतएव इनकी रक्षा करों इनकी पूजा तुम्हें धन, धान्य से पूर्ण करेगी तुम्हे आरोग्यता देगी। अतः इन्हें नष्ट करना धरा के अस्तित्व को खोने के समान हैं। अन्नकूट और गोवर्धन पूजादि इसी बात के गवाह हैं कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति के संरक्षण का अनूठा संगम है।
समूचा हिन्दूस्तान कार्तिक मास के शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा, गो, पूजा करता है। इस पर्व में 56 प्रकार के व्यंजन बनाकर जिसे अन्नकूट के नाम से जाना जाता है। (जिसमें अन्न का अर्थ अन्न और कूट का अर्थ शिखर या पर्वत से है) विविध भाँति निर्मित पकवानों को प्रभु श्रीकृष्ण को अर्पित किया जाता है और गोवर्धन नामक पर्वत की पूजा की जाती है। जो कि भारत के मथुरा वृन्दावन के क्षेत्र में स्थिति है। आज के दिन दैत्य राज बलि की पूजा का भी विधान है।
इस संदर्भ में पौराणिक कथानक हैं कि पूर्व समय में लोग इंद्र देव की पूजा 56 प्रकार के भोगों से करते थें। परन्तु द्वापर में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण लोगों को मथुरा नंदादि गांवों मे अपनी लीलाओं से तृप्त किया तब से प्रभु श्रीकृष्ण की पूजा का क्रम चल रहा है। जिससे लोग अन्नकूट गोवर्धन के दिन गोबर से बने हुए पर्वत आदि की पूजा करते हुए भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं और सामूहिक रूप से विविध व्यंजनों का भण्डारा भी करते हैं, जो समृद्धि का प्रतीक है।
भैया दूज या यम द्वितीया
पंच महापर्व का यह पांचवाँ एवं अति विशिष्ट पर्व है जिसे भैया दूज या द्वितीया भी कहा जाता है, जो कि कार्तिक मास की शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। भाई बहन के पवित्र रिश्तों का प्रतीक यह त्यौहार अति विशिष्ठ है। इसका प्रमुख उद्देश्य भाई-बहनों के बीच में निर्मलता को बढ़ाना है, इसी कारण इसका नाम भैया दूज है। इस त्यौहार के माध्यम से प्रत्येक बहन अपने प्रिय भाई हेतु कामना करती है, कि उसके भाई की दीर्घायु व सेहत खिली हुई हो उनकी समृद्धि व कीर्ति सदैव बढ़ती रहे। आज के दिन बहनें अपने भाई को अपने घर बुलाती हैं तथा टीका करके नाना प्रकार स्वादिष्ट व्यंजन परोसती हैं। यदि बहन व भाई पितृ गृह में ही हो तो भी उन्हें आज के दिन अपने भाई को नाना भांति के पकवान उन्हें खिलाना चाहिए।
इस व्रत के संदर्भ में पौराणिक कथानक है कि सूर्य पुत्र यम और पुत्री यमुना जो कि आपस में भाई बहन थे, बहुत दिनों के बाद एक दूसरे से आज के ही दिन मिले थे तथा उनकी बहन यमुना ने यम जी को नाना भांति के पकवानों को आदर के साथ खिलाया था। जिससे प्रसन्न भाई ने बहन को वर देने को कहा तब बहन ने ऐसा वर मांगा कि भैया यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वर दो कि जो भी भाई इस दिन यमुना स्नान करके अपने बहन के घर जाकर सम्मान सहित मिलें और बहन के घर में भोजन व मिष्ठान को ग्रहण करें तथा अपनी क्षमता के अनुसार बहन को द्रव्य आदि भेट दें तो उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं हो न ही उन्हें यम लोक की वेदनाएं भोगनी पड़े ऐसे बहन के कल्याणकारी वचन सुन भाई ने कहा ऐसा ही होगा। तब से इस त्यौहार का बड़ा ही महत्व है।
इन्ही उपर्युक्त पांच त्यौहारो के साथ दीपावली पंचपर्व का यह उत्सव सम्पन्न हो जाता है।
दीपावली पंचमहापर्व की आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं। लक्ष्मी माँ की आप पैर सदैव कृपा बनी रहे |
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