जानिए शाही स्नान की तिथियां और प्रमुख स्नान के साथ कुंभ से जुड़ी प्रचीन कथा

कुम्भ स्नान  :-पंडित कौशल पाण्डेय 





जानिए शाही स्नान की तिथियां और प्रमुख स्नान के साथ कुंभ से जुड़ी प्रचीन कथा और गंगा स्नान का महत्व..

धार्मिक मान्यता के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है। इसका हिन्दू धर्म मे बहुत ज्यदा महत्व है।

शाही स्नान
पहला शाही स्नान  शिवरात्रि,
दूसरा शाही स्नान सोमवती अमावस्या
तीसरा मुख्य शाही स्नान  मेष संक्रांति 
चौथा शाही  बैसाख पूर्णिमा पर है.

प्रमुख स्नान - 
मकर संक्रांति, 
 मौनी अमावस्या, 
बसंत पंचमी, 
माघ पूर्णिमा, 
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (हिन्दू नववर्ष) राम नवमी के दिन समापन होता है। 

जानिए कुंभ से जुड़ी प्राचीन कथा :-
कुंभ के संबंध में समुद्र मंथन की कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक बार महर्षि दुर्वासा के शाप की वजह से स्वर्ग श्रीहीन यानी स्वर्ग से ऐश्वर्य, धन, वैभव खत्म हो गया था। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। विष्णुजी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन से अमृत निकलेगा, अमृत पान से सभी देवता अमर हो जाएंगे। 

देवताओं ने ये बात असुरों के राजा बलि को बताई तो वे भी समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। इस मंथन में वासुकि नाग की नेती बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र को मथा गया था।
समुद्र मंथन में 14 रत्न निकले थे। इन रत्नों में कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, महालक्ष्मी, वारुणी देवी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, भगवान धनवंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर निकले थे।

जब अमृत कलश निकला तो सभी देवता और असुर उसका पान करना चाहते थे। अमृत के लिए देवताओं और दानवों में युद्ध होने लगा। इस दौरान कलश से अमृत की बूंदें चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिरी थीं। ये युद्ध 12 वर्षों तक चला था, इसलिए इन चारों स्थानों पर हर 12-12 वर्ष में एक बार कुंभ मेला लगता है। इस मेले में सभी अखाड़ों के साधु-संत और सभी श्रद्धालु यहां की पवित्र नदियों में स्नान करते हैं।


कुम्भ पर्व विशेष —

पृथ्वीपर कुम्भपर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार तीर्थस्थानोंमें मनाये जाते हैं। 
ये चारों ही एकसे बढ़कर एक परम पवित्र तीर्थ हैं। इन चारों तीर्थोमें प्रत्येक लगभग बारह वर्षके बाद कुम्भपर्व होता है—

गङ्गाद्वारे प्रयागे च धारागोदावरीतटे।कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः॥
अर्थ— गङ्गाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग, धारानगरी (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) में शङ्करादि देवगणोंने 'कुम्भयोग' कहा है।

मुख्य बारह कुम्भ पर्व—
सागर मंथनके समय जब अमृतका कलश लेकर भगवान् धन्वंतरि निकले तो देवताओंके इशारे पर उनके हाथोंसे अमृतकलश छीनकर इंद्रपुत्र जयंत आकाशमें उड़ गया, उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार दैत्योंने अमृतका कलश जयंतसे छीन लिया।तत्पश्चातक अमृतकुंभपर अपना- अपना अधिकार जमानेके लिए देवों और दानवोंमें 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। 
परस्पर इस मार- काटके समयमें पृथ्वीके चार स्थानों( प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक) पर अमृतकुंभ गिरा था, उस समय चंद्रमा, सूर्य और बृहस्पतिने अमृत कलशकी रक्षा की थी—
देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरै:|
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया॥
 तत्राघनुत्तये नॄणां चत्वारो भुवि भारते। 
अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरै:॥
                           (स्कन्दपुराण)

अर्थ— अमृत प्राप्तिके लिए देव- दानवोंमें परस्पर 12 दिन पर्यंत निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओंके12 दिन मनुष्योंके 12 वर्षके तुल्य होते हैं। अतएव कुंभपर्व भी 12 होते हैं। उनमेंसे चार कुंभ पृथ्वीपर होते हैं और अवशिष्ट 8 कुंभ देवलोकमें होते हैं, जिन्हें देवता ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्योंकी वहां पहुंच नहीं है। 
जिस समयमें चंद्र, सूर्य तथा बृहस्पतिने कलशकी रक्षा की थी उस समयकी वर्तमान राशियोंपर रक्षा करने वाले चंद्र, सूर्य और गुरु ग्रह जब-जब आते हैं तब- तब कुंभपर्वका योग होता है अर्थात् जिस वर्ष जिस राशिपर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पतिका संयोग होता है उसी वर्ष उसी राशिके योगमें जहां-जहां अमृतकुंभसुधाबिंदु गिरा था वहां- वहां कुंभपर्व होता है।
 
सामान्य रूपसे बृहस्पति 12 वर्षमें 12राशियोंका एक चक्र पूर्ण कर लेते हैं, कभी- कभी वक्री या अत्याचारी होनेके कारण 11वीं वर्षमें या तेरहवें वर्षमें बृहस्पति एक चक्कर लगा पाते हैं, इसलिए कुंभपर्वका समय भी 11, 12, 13 अथवा 14 वे वर्षमें भी हो सकता है।

चारोंकुम्भपर्वोंकेशास्त्रोल्लिखितमुख्यस्नानदिन—

(१) हरिद्वारकुम्भ
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1 पद्मिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ।
गङ्गाद्वारे भवेद्योग: कुम्भनामा तदोत्तमः॥
                           (स्कन्दपुराण)

अर्थ— जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशिपर स्थित हो और सूर्य मेष राशिपर रहे, उस समय गङ्गाद्वार (हरिद्वार)-में कुम्भयोग होता है।

2 वसन्ते विषुवे चैव घटे देवपुरोहिते।गङ्गाद्वारे च कुम्भाख्यः सुधामेति नरो यतः।।

शाही_स्नान—
हरिद्वारमें कुम्भके तीन मुख्य स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान शिवरात्रिके दिन होता है। 
द्वितीय स्नान चैत्रकी अमावास्याको होता है।
तृतीय स्नान (प्रधान स्नान) चैत्रके अन्तमें अथवा वैशाखके प्रथम दिनमें अर्थात् जिस दिन बृहस्पति कुम्भ राशिपर और सूर्य मेष राशिपर हो उस दिन कुम्भस्नान होता है।

(२) प्रयागकुम्भ
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1 मेषराशिं गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
अमावास्या तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थनायके॥
                           (स्कन्दपुराण)

अर्थ— जिस समय बृहस्पति मेष राशिपर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशिपर हों तो उस समय तीर्थराज प्रयागमें कुम्भयोग होता है।

2 मकरे दिवानाथे ह्यजगे बृहस्पतौ।
कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यतिदुर्लभः॥

शाही_स्नान—*
प्रयागमें कुम्भके तीन स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति (मेष राशिपर बृहस्पतिका संयोग होने)-से प्रारम्भ होता है।
द्वितीय स्नान (प्रधान स्नान) माघ कृष्णा मौनी अमावास्याको होता है। 
तृतीयस्नान माघ शुक्ला वसन्तपञ्चमीको होता है।

(३) उज्जैनकुम्भ
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मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ।
उज्जयिन्यां भवेत् कुम्भः सदा मुक्तिप्रदायकः॥

अर्थ— जिस समय सूर्य मेष राशिपर हो और बृहस्पति सिंह राशिपर हो तो उस समय उज्जैनमें कुम्भयोग होता है।

(४) नासिककुम्भ
(सिंहस्थकुम्भ—त्र्यम्बकेश्वर)
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सिंहराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ।
गोदावर्यां भवेत्कुम्भो भक्तिमुक्ति प्रदायक।।

अर्थ— जिस समय सूर्य तथा बृहस्पति दोनों ही सिंह राशिपर हों तो उस समय नासिकमें मुक्तिप्रद कुम्भ होता है।

गोदावरीके रम्य तटपर स्थित नासिकमें कुम्भ मेला लगता है। इसके लिये सिंह राशिका बृहस्पति एवं सिंह राशिका सूर्य आवश्यक है। इस पर्वका स्नान भाद्रपदमें अमावास्या-तिथिको होता है। देवगुरु बृहस्पति जबतक विश्वात्मा सूर्यनारायणके साथ सिंह राशिमें रहते हैं तब तकका
समय सिंहस्थ कहलाता है। इस सिंहस्थ कालमें श्रीनासिक तीर्थकी यात्रा, पवित्र गोदावरी नदीमें स्नान एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके दर्शनका बड़ा माहात्म्य है। यहीं पञ्चवटीमें भगवान् श्रीरामने वनवासका दीर्घकाल व्यतीत किया था।

उज्जैनका कुंभ और नासिकका कुंभ दोनों ही सिंहस्थ बृहस्पतिके समयपर होते हैं, इसलिए ये दोनों कुंभ 1 वर्षके मध्यमें ही कुछ महीनोंके अंतरालसे होते हैं। 

कुम्भपर्वोंमें_स्नानमाहात्म्य—

तान्येव यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय कल्पते।
देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान्॥

अर्थ— जो मनुष्य कुम्भयोगमें स्नान करता है, वह अमृतत्व (मुक्ति) की प्राति करता है। जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य सम्पत्तिशालीको नम्रतासे अभिवादन करता है, उसी प्रकार कुम्भपर्वमें स्नान करनेवाले मनुष्यको देवगण नमस्कार करते हैं।

१.हरिद्वारस्नानकी_महिमा

कुम्भराशिं गते जीवे तथा मेषे गते रवौ।हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्तिवर्जनम्॥

अर्थ— कुम्भ राशिमें बृहस्पति हो तथा मेष राशिपर सूर्य हो तो हरिद्वारके कुम्भमें खान करनेसे मनुष्य पुनर्जन्मसे रहित हो जाता है।

योऽस्मिन्क्षेत्रे स्नायात्कुम्भेज्येऽजगे रवौ।स तु स्याद्वाक्पतिः साक्षात्प्रभाकर इवापरः।।

अर्थ— जो इस क्षेत्रमें बृहस्पतिके कुम्भ राशिपर और सूर्यके मेष राशिपर रहते समय स्नान करता है, वह साक्षात् बृहस्पति और दूसरे सूर्यके समान
तेजस्वी होता है।

सोमवारान्वितायां वा यस्यां कस्यामथापि वा।अमायां च तथा माघे वैशाखे कार्तिकेऽपि वा।।

अर्थ— सोमवती अमावास्यामें अथवा अन्य किसी भी अमावास्यामें एवं माघ, वैशाख तथा कार्तिकमासमें इस हरिद्वार तीर्थका दर्शन तथा स्नान आदिका
बड़ा माहात्म्य है।

ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां स्नानमात्रतः।
प्राप्यते परमं स्थानं दुर्लभं योगिनामपि॥

अर्थ— ज्येष्ठके महीनेमें शुक्ल पक्षकी दशमी (गङ्गादशहरा, गङ्गाजन्म) के दिन केवल
स्नान करनेसे परमधामकी प्राप्ति होती है, जो कि योगियोंको भी दुर्लभ है।

स्वर्गद्वारेण तत् तुल्यं गङ्गाद्वार न संशयः।
तत्राभिषेक कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः॥

लभते पुण्डरीकं च कुलं चैव समुद्धरेत्।
तत्रैकरात्रिवासेन गोसहस्रफलं लभेत्॥

सप्तगङ्गे त्रिगङ्गे शक्रावर्ते तर्पयन्।
देवान् पितॄंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते॥

ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः।
अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं गच्छति॥

अर्थ— हरिद्वार स्वर्गके द्वारके समान है। इसमें संशय नहीं है। वहाँ जो एकाग्र होकर कोटितीर्थमें स्नान करता है, उसे पुण्डरीकयज्ञका फल मिलता है
तथा वह अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने मात्रसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। सप्तगङ्गा, त्रिगङ्गा और शक्रावर्तमें विधिपूर्वक देवर्षि-पितृतर्पण करनेवाला पुण्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
तदनन्तर कनखलमें स्नान करके तीन रात उपवास करे। ऐसा करनेवाला अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है और स्वर्गगामी होता है।

२. प्रयागस्नानकी_महिमा

सहस्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटिः कुम्भस्त्रानेन तत्फलम्॥
                           (स्कन्दपुराण)

अर्थ— कार्तिक महीनेमें एक हजार बार गङ्गामें स्नान करनेसे, माघमें सौ बार गङ्गामें स्नान करनेसे और वैशाखमें करोड़ बार नर्मदामें स्नान करनेसे जो
फल होता है, वह प्रयागमें कुम्भपर्वपर केवल एक ही बार स्नान करनेसे प्राप्त होता है।

विष्णुपुराणमें भी कहा गया है—
अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्त्रानेन तत्फलम्॥

अर्थ— हजार अश्वमेध-यज्ञ करनेसे, सौ वाजपेययज्ञ करनेसे और लाख बार पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल प्रयागके कुम्भके स्नानसे प्राप्त होता है।

३. उज्जैनस्नानकी_महिमा

कुशस्थलीमहाक्षेत्रं योगिनां स्थानदुर्लभम्।
माधवे धवले पक्षे सिंहे जीवे अजे  रवौ।।
  
उज्जयिन्यां महायोगे स्नाने मोक्षमवाप्नुयात्॥
           (स्कन्दपु० अवन्तीखण्ड)

अर्थ— जब सूर्य मेष राशिपर और गुरु सिंह राशिपर स्थित हों तब वैशाख शुक्लपक्षमें योगियोंके लिए भी दुर्लभ शुभ कम्भके समयमें उज्जैनके शिप्रातीर्थमें स्नान करने मात्रसे मोक्षकी प्राप्ति होती है

अन्यत्र भी आया है-
धारायां च तदा कुम्भो जायते खलु मुक्तिदः।

४.नासिकस्नानकी_महिमा

पष्टिवर्षसहस्राणि भागीरथ्यवगाहनम्।
सकृद् गोदावरीस्नानं सिंहस्थे च बृहस्पतौ॥

अर्थ— जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर हो उस समय गोदावरीमें केवल एक बार स्नान करनेसे मनुष्य साठ हजार वर्षोंतक गङ्गास्नान करनेके
सदृश पुण्य प्राप्त करता है।

ब्रह्मवैवर्तपुराणमें_लिखा है—
अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम्।
प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ॥

अर्थ— जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हो, उस समय गोदावरीमें केवल स्नानमात्रसे ही मनुष्य अश्वमेधयज्ञ करनेका तथा एक लक्ष गोदान करनेका पुण्य प्राप्त करता है।

ब्रह्माण्डपुराणमें कहा गया है—
यस्मिन् दिने गुरुर्याति सिंहराशौ महामते।
तस्मिन् दिने महापुण्यं नरः स्नानं समाचरेत्॥

यस्मिन् दिने सुरगुरुः सिंहराशिगतो भवेत्।
तस्मिंस्तु गौतमीस्नानं कोटिजन्माघनाशनम्॥

तीर्थानि नद्यश्च तथा समुद्रा:
     क्षेत्राण्यरण्यानि तथाऽऽश्रमाश्च।
वसन्ति सर्वाणि च वर्षमेकं
    गोदातटे सिंहगते सुरेज्ये॥

कुम्भपर्वकेआद्यप्रवर्तकभगवान्_श्रीशंकराचार्य—

जिस कुम्भपर्वका उल्लेख वेदों और पुराणोंमें मिलता है उसकी प्राचीनताके संबंधमें तो किसीको संदेह होनेका अवसर ही नहीं है।
किंतु यह बात अवश्य विचारणीय है कि कुम्भमेलेका धार्मिकरूपमें प्रचार- प्रसार करनेका श्रीगणेश किसने किया? इस विषयमें बहुत अन्वेषण करनेपर सिद्ध होता है कि कुंभ मेलेको प्रवर्तित करने वाले भगवान् आद्यशंकराचार्य ही हैं। उन्होंने कुम्भपर्वके प्रचारकी व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृतिको सुदृढ़ करनेके लिए ही की थी। उन्हींके आदेशानुसार आज भी कुम्भपर्वके चारों सुप्रसिद्ध तीर्थोंमें सभी संप्रदायोंके साधु- महात्मागण देश- काल परिस्थितिके अनुरूप लोक कल्याणकी दृष्टिसे धर्मका प्रचार करते हैं जिससे समस्त मानव समाजका कल्याण होता है।
 भगवान् शंकराचार्यजीके प्रवर्तक होनेके कारण ही आज भी कुम्भपर्वका मेला मुख्यतः साधुओंका ही माना जाता है, वस्तुतः साधु मंडली ही कुम्भका जीवन है।

पूर्ण कुम्भ और अर्द्ध कुम्भ—

 हिंदू समाजमें प्राचीन कालसे ही कुंभपर्व मनानेकी प्रथा चली आ रही है हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चारों स्थानोंमें क्रमशः 12- 12 वर्षोंपर प्रायः पूर्णकुंभका मेला लगता है, जबकि हरिद्वार तथा प्रयागमें अर्द्धकुम्भपर्व भी मनाया जाता है। किंतु यह अर्द्धकुम्भपर्व उज्जैन और नासिकमें नहीं होता।
 अर्द्धकुम्भपर्वके प्रारंभ होनेके संबंधमें कुछ विद्वानोंका विचार है कि मुगलसाम्राज्यमें हिंदूधर्मपर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों दिशाओंके शंकराचार्योंने हिंदू धर्मकी रक्षाके लिए हरिद्वार एवं प्रयागमें साधु- महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानोंको बुलाकर विचार विमर्श किया था, तभीसे हरिद्वार और प्रयागमें अर्द्धकुम्भ मेला होने लगा। शास्त्रोंमें जहां कुंभपर्वकी चर्चा प्राप्त है वहां पूर्णकुंभका ही उल्लेख मिलता है।


महाकुम्भपर्वऔरहमारे_कर्तव्य—

1. कुम्भपर्वमें सम्मिलित होनेवाले प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह कुम्भपर्वस्थानमें जबतक रहे तबतक निष्कपट, सरलहृदय, स्वार्थरहित एवं धर्मपरायण होकर रहे।

2. ईश्वरमें श्रद्धाभक्ति रखना ही सुखशान्तिप्राप्तिका सच्चा साधन है। अतः उठते- बैठते, जागते-सोते, खाते-पीते सभी अवस्थाओंमें भगवान्का स्मरण करना चाहिये।

4. प्राणिमात्रमें गुणदोष स्वाभाविक होते हैं, इस दृष्टिसे स्वयं अपनेमें गुण और दोष
दोनोंकी कल्पना कर भूलकर भी दूसरेका दोष नहीं देखना चाहिये।

4. कुम्भतीर्थस्थलमें पहुँचकर यथानियम, यथाधिकार सबको दैनिक तीर्थस्नान, देवमन्दिरोंका दर्शन, सन्ध्योपासन, तर्पण, बलिवैश्वदेव, देवपूजन और वेदपुराणादिका स्वाध्याय करना चाहिये।

5. सर्वदा समस्त इन्द्रियोंको अपने वशमें रखते हुए क्रोधसे बचना चाहिये- क्रोध: पापस्य कारणम्।

6. यज्ञ-यागादि एवं ब्राह्मणोंको मुक्तहस्त होकर दान देना चाहिये।

7. नियत समयमें साधु-महात्मा एवं विद्वानोंके दर्शन और उनके सदुपदेशद्वारा अपने जीवनको
पवित्र बनाना चाहिये।

8. खान-पान, रहन-सहन आदि सात्त्विक होना चाहिये।

9. एक समय फलाहार और एक समय अन्नाहार करना चाहिये।

10. तीर्थमें दान लेनेसे बचना चाहिये।

11. जिस तीर्थस्थानमें मनुष्य जाय, उसे वहाँके महत्त्वसे अवश्य परिचित होना चाहिये।

12. तीर्थमें यज्ञ-यागादि धर्मानुष्ठानोंके करने तथा भागवतादि पुराणोंके श्रवणका बहुत फल लिखा है। अतः यथाशक्ति सबको धार्मिक कार्यमें हाथ बँटाना चाहिये।

13. तीर्थस्थानमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान-इन नियमोंका पूर्णतया पालन करना चाहिये।

14. अपने इष्टदेवताका सर्वदा स्मरण करते रहना चाहिये।

15. तीर्थमें जाकर भूलकर भी किसीका अनिष्टचिन्तन नहीं करना चाहिये।

16. तीर्थस्थानमें यथासम्भव अपने ही अन्न और वस्त्रका उपभोग करना चाहिये।

17. कुम्भपर्वमें घृतपूर्ण कुम्भका  विद्वान् ब्राह्मणको दान करना चाहिये।

18. यथाशक्ति साधु-महात्माओं तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करना चाहिये।

19. कुम्भपर्वमें स्नान करते समय कुम्भके स्वरूपका ध्यान और कुम्भप्रार्थना तथा उस तीर्थ की प्रार्थना करके ही स्नान करना चाहिये।

20. कुम्भपर्वमें स्नान करनेके पूर्व कलश (कुम्भ)-मुद्रा दिखलाकर और उसमें अमृतकी भावना करके ही स्नान करना चाहिये।

21. कुम्भस्नानकी विधिमें जो कुछ त्रुटि हो जाए उसकी पूर्णताके लिए भगवान् श्रीहरिका स्मरण अवश्य करना चाहिए।

पद्म पुराण’ के उत्तर खण्ड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्रत, दान व तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी माघ मास में ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नानमात्र से होती है। इन तीन दिन विष्णु सहस्रनाम पाठ और गीता का पाठ भी अत्यंत प्रभावशाली और पुण्यदायी है l
माघ मास का इतना प्रभाव है के सभी जल गंगा जल के तीर्थ पर्व के समान हैं |
पुष्कर, कुरुक्षेत्र, काशी, प्रयाग में 10 वर्ष पवित्र शौच, संतोष आदि नियम पलने से जो फल मिलता है माघ मास में 3 दिन स्नान
करने से वो मिल जाता है, खाली ३ दिन | माघ मास प्रात:स्नान सब कुछ देता है | आयु, आरोग्य, रूप, बल, सौभाग्य, सदाचरण देता है |

विनम्र निवेदन— उपरोक्त लेख का संपूर्ण विवरण किसी न किसी ग्रंथ व आचार्यों के आधार पर ही लिखा गया है। 
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