#माघ महीने की महिमा

#माघमास का माहात्म्य बड़ा ही दिव्य है। 
इस माह का प्रत्येक दिवस एक पर्व व व्रत के रूप में जाना जाता है। उनका जीवन धन्य हो जाता है जो माघ मास के नियम व व्रतादि का आचरण करते हैं। माघ मास प्रारंभ होते ही साधक को व्रतादि एवं तीर्थादि गमन का विशुद्ध भाव से कामना परक या फिर निष्काम संकल्प अवश्य ही करना चाहिए, क्योंकि बिना संकल्प के कार्य सिद्ध नहीं होता। शास्त्र कहता है संकल्प ही सिद्धियों का मूल है।

भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चान्द्रमास और दसवां सौरमास 'माघ' कहलाता है। इस महीने में मघा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। धार्मिक दृष्टिकोण से इस मास का बहुत अधिक महत्व है। इस मास में शीतल जल के भीतर डुबकी लगाने वाले मनुष्य पापमुक्त हो स्वर्गलोक में जाते हैं।
माघे निमग्नाः सलिले सुशीते विमुक्तपापस्त्रिदिवं प्रयान्ति॥
माघ मास में प्रयाग में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकिर्तन के महत्व का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है।
माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर न श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहि गाता॥
पद्मपुराण के उत्तरखंड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान् श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नानमात्र से होती है। इसलिये स्वर्गलाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान् वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान करना चाहिये।
व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः। माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः॥
प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापानुत्तये। माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्गलाभाय मानवः॥
इस माघमास में पूर्णिमा को जो व्यक्ति ब्रह्मवैवर्तपुराण का दान करता ळै, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है- पुराणां ब्रह्मवैवर्त यो दद्यान्माघमासि च। पौर्णमास्यां शुभदिने ब्रह्मलोके महीयते॥ (मत्स्यपुराण 53/35)
इस मास में स्नान, दान, उपवास और भगवान् माधव की पूजा अत्यंत फलदायी है। इस विषय में महाभारत के अनुशासनपर्व में इस प्रकारण वर्णन प्राप्त है।
दशतीर्थ सहस्राणि तिस्तः कोटयस्तथा पराः॥ समागच्छन्ति माघ्यां तु प्रयागे भरतर्षभ। माघमासं प्रयागे तु नियतः संशितव्रतः॥
स्नानत्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात्। (महा., अनु. 25/36-38)
हे भारत श्रेष्ठ ! माघमास की अमावस्या को प्रयागराज में तीन करोड़ दस हजार अन्य तीर्थों का समागम होता है। जो नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते हुए माघमास में प्रयाग में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाता है। जो माघ मास में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता-
माघ मास से तिलान् यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। सर्वसत्त्वसमाकीर्णं नरकं स न पश्यति॥ (महा., अनु. 66/8)
जो माघ मास को नियमपूर्वक एक समय के भोजन से व्यतीत करता है, वह धनवान् कुल में जन्म लेकर अपने कुटुम्बीजनों में महत्व को प्राप्त होता है-
माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते॥ (महा., अनु. 106/21)

माघ मास की द्वादशीतिथि को दिन-रात उपवास करके भगवान् माधवकी पूजा करने से उपासक को राजसूयज्ञ का फल प्राप्त होता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है-
अहोरात्रेण द्वादश्यां माघमासे तु माधवम्। राजसूयवमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत्॥ (महा., अनु. 109/4)
जिन मनुष्यों को चिरकालतक स्वर्गलोक में रहने की इच्छा हो, उन्हें माघमास में सूय र् के मकरराशि में स्थित होने पर अवश्य स्नान करना चाहिये।
स्वर्गलोके चिरं वासो येषां मनसि वर्तते।
यत्र क्रापि जले तैस्तु स्रातव्यं मृगभास्करे॥ इसके लिए प्रातःकाल तिल, जल, पुष्प, कुश लेकर इस प्रकार संकल्प करना चाहिये- क्क तस्सत् अद्य माघे मासि अमुकपक्षे अमुक-तिथिमारभ्य मकररस्थ रविं यावत् अमुकगोत्राः अमुकशर्मा ;वर्मा/गुप्तोहंद्ध वैकुण्ठनिवासपूर्वक श्रीविष्णुप्रीत्यर्थं प्रातः स्नान करिष्ये। इसके बाद निम्न प्रार्थना करें- दुःखदारिद्रयनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च। प्रातःस्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम्॥ मकरस्थे रवौ माघे गोविन्दाच्युत माधव। स्नानेनानेन में देव यथोक्तफलदो भव॥ दिवाकर जगन्नाथ प्रभाकर नमोऽस्तु ते। परिपूर्णं कुरुष्वेदं माघस्नानं महाव्रतम्॥ माघमासमिमं पुण्यं स्राम्यहं देव माधव। तीर्थस्यास्य जले नित्यं प्रसीद भगवन् हरे॥

माघ मास की ऐसी विशेषता है कि इसमें जहां-कहीं भी जल हो, वह गंगाजल के समान होता है, फिर भी प्रयाग, काशी, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार तथा अन्य पवित्र तिर्थों और नदियों में स्नान का बड़ा महत्त्व है। साथ ही मन की निर्मलता एवं श्रद्धा भी आवश्यक है। इस प्रसंग में

पद्मपुराण में एक बड़ी रोचक कथा आयी है, जो इस प्रकार है-
कथा : प्राचीन काल में नर्मदा के तट पर सुव्रत नामक एक ब्राह्मणदेवता निवास करते थे। वे समस्त वेद-वेदांगों, धर्मशास्त्रों एवं पुराणों के ज्ञाता थे। साथ ही उन्होंने तर्कशास्त्र, ज्योतिष, गजविद्या, अश्वविद्या, मंत्रशास्त्र, सांखयशास्त्र, योगशास्त्र और चौंसठ कलाओं का भी अध्ययन किया था। वे अनेक देशों की भाषाएं और लिपियां भी जानते थे। इतने विज्ञ होते हुए भी सुव्रतने अपने ज्ञान का प्रयोग धर्मकार्यों में नहीं किया, अपितु आजीवन धन कमाने के लोभ में ही फंसे रहे। इसके लिये उन्होंने चांडाल से भी दान लेने में संकोच नहीं किया, इस प्रकार उन्होंने एक लाख स्वर्णमुद्राएं अर्जित कर लीं। धनोपार्जन में लगे-लगे ही उन्हें वृद्धावस्था ने आ घेरा, सारा शरीर जर्जर हो गया। कालके प्रभाव से सारी इन्द्रियां शिथिल हो गयीं और वे कहीं आने-जाने में असमर्थ हो गये। सहसा उनके मन में विवेक उदय हुआ कि मैंने सारा जीवन धन कमाने में नष्ट कर दिया, अपना परलोक सुधारने की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। अब मेरा उद्वार कैसे हो? मैंने तो आजीवन कोई सत्कर्म किया ही नहीं। सुव्रत इस प्रकार पश्चाताप की अग्नि में दग्ध हो रहे थे, उधर रात्रि में चोरों ने उनका सारा धन चोरी कर लिया। सुव्रत को पश्चाताप तो था ही, धन के चोरी चले जाने पर उसकी नश्वरता का भी बोध हो गया। अब उन्हें चिन्ता थी तो केवल अपने परलोक की। व्याकुलचित्त हो वे अपने उद्वार का उपाय सोच रहे थे कि उन्हें यह आधा श्लोक स्मरण में आया- माघे निमग्नाः सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥ सुव्रतको अपने उद्वार का मूल मंत्र मिल गया। उन्होंने माघ-स्नान का संकल्प लिया और चल दिये नर्मदा में स्नान करने। इस प्रकार वे नौ दिनों तक प्रातः नर्मदा के जल में स्नान करते रहे। दसवें दिन स्नान के बाद वे अशक्त हो गये, शीत से पीडित हो उन्होंने प्राण त्याग दिया। यद्यपि उन्होंने जीवनभर कोई सत्कर्म नहीं किया था, पापपूर्वक ही धनार्जन किया था, परंतु माघमास में स्नान करके पश्चातपपूर्वक निर्मल मन ही प्राण त्यागने से उनके लिये दिव्य विमान आया और उस पर आरूढ़ हो वे स्वर्गलोक चले गये। इस प्रकार की माघ-स्नान की अपूर्व महिमा है। इस मास की प्रत्येक तिथि पर्व है। कदाचित् अशक्तवस्था में पूरे मास का नियम न ले सके तो शास्त्रों ने यह भी व्यवस्था दी है कि तीन दिन अथवा एक दिन अवश्य माघ-स्नान व्रत का पालन करे- 'मासपर्यन्तं स्नानसम्भवे तु त्रयहमेकाहं वा स्रायात्।' (निर्णयसिंधु)

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