व्रत रखने के नियम :- कौशल पाण्डेय +919968550003


व्रत रखने के नियम :- 
पंडित कौशल पाण्डेय  +919968550003



मुख्य रूप से हमारे समाज में तीन प्रकार के व्रत प्रचलित हैं - 1. नित्य 2. नैमित्तिक और 3. काम्य। नित्य वे व्रत हैं जो भक्तिपूर्वक भगवान की प्रसन्नता के लिए निरंतर कर्तव्य भाव से किए जाते हैं। किसी निमित्त से जो व्रत किए जाते हैं वे नैमित्तिक व्रत कहलाते हैं और किसी विशेष कामना को लेकर जो व्रत किए जाते हैं वे काम्य व्रत कहे जाते हैं।

सभी प्रकार के व्रतों में मानस व्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य मकल्मषम। एतानि मानसान्याहुव्र्रतानि व्रत धारिणि।। (वराह पुराण)

मन, वाणी और कर्म की पवित्रता, शुद्धता को शुचिता कहा जाता है। मन में विकारों का न आना मन की निर्मलता तथा पवित्रता है। वाणी से मधुर, कल्याणकारक, प्रिय सत्यसंभाषण वाणी की पवित्रता है।
शरीर शुद्ध हो और मन अशुद्ध हो तो सब व्यर्थ है। मन के शुद्ध होने पर ही क्रिया की शुद्धि होती है। क्रिया शुद्धि को ही शौचाचार का सारतत्व माना जाता है।

व्रत में उपवास का विधान है। केवल अन्न-जल के परित्याग से ही उपवास की पूर्ति नहीं होती। उपवास का शाब्दिक अर्थ है - ”उप समीपे वासः।“ समीप में रहना अर्थात् अपने इष्टदेव के पास रहना। मानव ने जो लक्ष्य धारण किया है, जो व्रत धारण किया है, उसके समीप उसका वास होना।

तैत्तिरीयोपनिषद में व्रत के विषय में कहा गया है - ‘अन्नं न निन्द्यात्। तद् व्रतम। अन्नं बहु कुर्वीत। तद् व्रतम।’ अर्थात् अन्न की निंदा मत करो, वह एक व्रत है। अन्न को बढ़ाना एक व्रत है।

सामान्यतः व्यक्ति के क्रियाकलाप और व्यवहार को आचार कहते हैं। सात्विक, पवित्र आचरण को सदाचार कहा जाता है। इस प्रकार शौचाचार तथा सदाचारव्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाला व्रती शाश्वत कल्याण प्राप्ति का पथिक बन जाता है। निष्कर्षतः व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है।

ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘इंद्र के सहायक मित्र विष्णु के कर्मों को देखो जिनके द्वारा वह अपने व्रतों अर्थात् आदेशों की रक्षा करता है-
‘विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे इंद्रस्य युज्यः सखा।।’ यह उदाहरण अथर्ववेद और वाजसनेयी संहिता में भी आया है- व्रतमुपैष्यन् ब्रूयादग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामीति।।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- ‘‘व्रतेन त्वं व्रतपते समक्तो विश्वाहा सुमना दीदिहीह।’’
वैदिक संहिताओं में कहीं-कहीं व्रत को किसी धार्मिक कृत्य या संकल्प संलग्न व्यक्ति के लिए व्यवस्थित किया गया है। ब्राह्मण उपनिषदों में बहुधा अधिक स्थलों पर व्रत का दो अर्थों में प्रयोग हुआ है- एक धार्मिक कृत्य या संकल्प तथा आचरण एवं भोजन संबंधी रोक के संदर्भ में और दूसरा उपवास करते समय भक्ष्य अभक्ष्य भोजन के संदर्भ में।

शास्त्रोदिति हि नियमो व्रतं तच्च तपो मतम्/नियमस्तु विशेषास्तु व्रतस्यैव दमादयः/व्रतं हि कर्तृसन्तापाŸाम इत्याभिधीयते/ इंद्रियगा्रम निमन्नियश्चाभिधीयते।
अमरकोश के अनुसार, नियम एवं व्रत एक हैं। व्रत में उपवास आदि होते हैं जो पुण्य उत्पन्न करते हैं। श्रीदŸा ने ‘समयप्रदीप’ में लिखा है कि व्रत एक निर्दिष्ट संकल्प है जो किसी विषय से संबंधित है जिसमें कर्तव्य के साथ अपने को बांधते हैं- ‘स्वकर्मविषयो नियतः संकल्पोव्रतम्।’ धर्मसिंधु ने व्रत को पूजा आदि से संबंधित धार्मिक कृत्य माना है।

अग्निपुराण में कहा गया है कि व्रत करने वालों को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए, सीमित मात्रा में भोजन करना चाहिए और देवों का सम्मान करना चाहिए। इसमें होम एवं पूजा में अंतर माना गया है। विष्णु धर्मोŸार पुराण में व्यवस्था है कि जो व्रत-उपवास करता है, उसे इष्टदेव के मंत्रों का मौन जप करना चाहिए, उनका ध्यान करना चाहिए, उनकी कथाएं सुननी चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए। इसमें होम, योग एवं दान के महत्व को समझाया गया है।

जिसकी शारीरिक स्थिति ठीक न हो, व्रत करने से उŸोजना बढ़े और व्रत रखने पर व्रत भंग होने की संभावना हो उसे व्रत नहीं करना चाहिए। व्रती में व्रत करते समय निम्नोक्त 10 गुणों का होना आवश्यक है- क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, देवपूजा, अग्निहवन, संतोष एवं अस्तेय। देवल के अनुसार ब्रह्मचर्य, शौच, सत्य एवं अमिषमर्दन नामक चार गुण होने चाहिए। व्रत के दिन मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए। पतित, पाखंडी तथा नास्तिकों से दूर रहना चाहिए और असत्य भाषण नहीं करना चाहिए। उसे सात्विक जीवन का पालन और प्रभु का स्मरण करना चाहिए। साथ ही कल्याणकारी भावना का पालन करना चाहिए।

व्रत शब्द वैदिक धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की एक अनूठी देन है। चारों वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, मनुस्मृति एवं साहित्यिक ग्रंथों में व्रत शब्द अनेक बार आया है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्रत प्रतिज्ञा-पालन और दुर्गुणों का परित्याग कर सद्गुणों को धारण करने के लिए दृढ़ निश्चय एवं दृढ़ संकल्प के अर्थों में आया है। व्रत शब्द के विविध अर्थ होते हैं जैसे - आज्ञापालन, धार्मिक कर्तव्य, देवता की उपासना, नैतिक आचरण, विधियुक्त प्रतिज्ञा, अंगीकृत कार्य इत्यादि।

ऋग्वेद में व्रत शब्द का अर्थ है - ईश्वरीय आज्ञा। अथर्ववेद में इस शब्द का अर्थ है धार्मिक कृत्य अंगीकार करने का निश्चय - ‘समानो मंत्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तमेषाम्।’ प्रायश्चित करते समय कतिपय कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है जिसे मनुस्मृति में व्रत कहा गया है। महाभारत में व्रत शब्द का अर्थ धार्मिक कृत्य, प्रतिज्ञा आदि है। पुराणादि में इसका अर्थ - विशिष्ट तिथि में, विशिष्ट वार में, विशिष्ट मास में विशिष्ट देवता की पूजा करके अपना इच्छित हेतु साध्य करने के लिए कुछ अन्न सेवन एवं इतर आचरण के निर्बंध पालन से है। अमरकोश में तो व्रत और नियम प्रायः समानार्थी शब्द हैं। मिताक्षरा में इसका अर्थ है कुछ क्रिया करने का और कुछ क्रिया करने का निश्चय। निष्कर्षतः सत्कर्म व्रत है। अभीष्ट कर्म करने का संकल्प व्रत है। धर्माचरण व्रत है। शास्त्रविहित नियमों का पालन करना व्रत है।
इसलिए कहा गया है -‘प्रियते इति व्रतम’ अर्थात् जिसका वरण, ग्रहण, अनुपालन, आचरण किया जाए वही व्रत है।

आर्य संस्कृति में, श्रीराम की परंपरा में व्रत का संबंध आचरण से है। बुराई को छोड़ने और सच्चाई एवं भलाई को दृढ़तापूर्वक अपनाने का नाम व्रत है।
भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया था। यहां व्रत का अर्थ संकल्प है।
श्रीराम का जीवन दृढ़व्रत का पर्याय है- ‘सत्यसंघ दृढ़व्रत रघुराई’।
गोस्वामी तुलसीदास जी भरत जी के व्रत-नियम का गुनगान करते हुए कहते हैं - प्रनवऊ प्रथम भरत के चरणा। जासु नेम व्रत जाई न बरना।।
श्री हनुमान जी के सेवा व्रत से सभी परिचित हैं।

मेडिकल साइंस कहता है मधुमेह के रोगी, गर्भवती महिला, गैस्ट्रिक के रोगी, पेप्टिक अल्सर के रोगी आदि उपवास न करें, अर्थात् अन्न न त्यागें, वरना लाभ की जगह हानि होगी।

प्रायः देखा जाता है कि व्रत के नाम पर अन्न का त्याग होता है। कई जगह क्षेत्रीय परंपरा के अनुसार कर्मकांड होता है, स्वार्थपरक व्रत का चुनाव होता है।
व्रत लिया नहीं जाता, किया जाता है। यही कारण है कि व्रत के दिन भी तथाकथित व्रती ईष्र्या, दोष, क्रोध, मोह, स्वार्थ, वैमनस्यता आदि को छोड़ नहीं पाता है।
गृहस्थ धर्म के लिए :-
व्रत के नाम पर आज कल प्रायः देखने में आता है की प्रायः कई स्त्री इश्वर की पूजा -पाठ में अपने को इतना व्यस्त रखती है की वो अपने को घर, परिवार , माता -पिता, सास-ससुर और पति के सेवा से अलग रखती है इसे व्रत नहीं कहा जायेगा उल्टा पाप कमा रहे है ऐसे लोग ,
क्योंकी गृहस्थ धर्म का पालन करना भी एक व्रत है ,
माता -पिता-गुरु जनो की आज्ञा का पालन करना और उनकी सेवा करना ये भी व्रत है
पति के सेवा इश्वर की सेवा के बराबर है .
भूल से भी पर पुरुस के संसर्ग में न आना और मन-वचन से अपने पतिव्रत धर्म का पालन करना ये भी एक धर्म है
अपने गृहस्थ जीवन की अच्छे से देखभाल करना ये भी एक व्रत है ,
अब रही पुरुषो की बात हमारे हिन्दू समाज में संस्कार की अहम् भूमिका है जिसने अपने जीवन भी सनातन धर्म के संस्कार को अपना लिया है वो घर स्वर्ग बन जाता है
पुरुषो के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना ही सबसे बड़ा व्रत है .
ऐसा भी न करे की राम नाम जपना पराया माल अपना ,
अपने घर -परिवार का पालन-पोषण इमानदारी से करना भी एक व्रत है , घर में अगर पत्नी से कलह है तो समझो लक्ष्मी को स्वय रुष्ट कर रहे है आप , इसलिए पत्नि के लिए एक आदर्श पति साबित होइये ये भी एक व्रत है ...

पंडित कौशल पाण्डेय 
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